
तंत्र और साधना का आधार भक्ति है। भक्ति ही सारे तंत्र, मंत्र, यन्त्र का आधार है। जीव के अस्तित्व का आधार ही भक्ति है। बिना भक्ति यह जीवन नशवर है। जीवन का सार भक्ति है। और उसके बाद कर्मा है। जो हम करते है उसका फल भोगने पड़ता है इसी को तंत्र का सार रहस्य भी कहते है।
इस ब्रम्हांड में कई शक्तियां है सभी शक्तिशाली । लेकिन बड़ी शक्तियां की साधना नहीं होती होता है भक्ति।
क्योंकि भक्ति से ही सिद्धि संभव है।
अग्रपुरुष जो समाज के लिए विशेष कार्य कर जाते हैं। वे समाज में विशिष्ट स्थान पा जाते हैं। समाज उनकी स्मृति में उनके नाम से चौक-चौराहा, प्रतिष्ठान, समाज कल्याण योजना का नाम और शहर आदि का नाम रखते हैं। उद्यान (गार्डन) चौक-चौराहों पर उनकी प्रतिमा स्थापित करते हैं। ताकि आगामी पीढ़ी उनसे प्रेरणा लेकर सकारात्मक रूप से समाज की बेहतरी के लिए आगेआए।
उपर्युक्त तथ्य तर्कपूर्ण और न्याय संगत है किंतु भव्य भवन बनाकर देवी-देवताओं की प्रतिमा स्थापित करना, उनकी प्राण प्रतिष्ठा करना, उन्हें विभिन्न निवैद्य अर्पित करना, उनके लिए सोने का छत्र, सोने की आँख, वस्त्र और धन आदि दान कर मूर्ति पूजना उचित है?
शिक्षित आधुनिक पीढ़ी के अंत: में इस तरह के कौतुहल (प्रश्न) उठते तो हैं पर प्राचीन समय से चली आ रही परम्परा में वह मूर्तिपूजा का उल्लंघन नहीं कर पाते। मूर्ति को बनाने वाला मूर्तिकार (मनुष्य), मूर्ति और मनुष्य दोनों में कौन बड़ा है, कौन चैतन्य है? यह बात वाद-विवाद तक ही सीमित रह जाती है। 'मूर्ति' माने मूल की नकल (दूसरी कापी) वेद में ईश्वर के विषय में कहा गया है- "तस्य प्रतिमा न अस्ति।" अर्थात् उसकी प्रतिमा नहीं होती। प्रतिमा अग्रपुरुषों (महापुरुषों) की होती है। 'प्रतिमा' माने प्रतिमूर्ति उसकी मूर्ति, जो वह नहीं है उसकी नकल है। अब उसके स्थान पर उसकी प्रतिमा (नकल) को निवैद्य अर्पित करना, उनको भजन सुनाना, श्रंगार वस्त्र और रुपए पैसे चढ़ाना उचित है? क्या उस मूल सत्ता को यह सब प्राप्त हो जाता है? यह एक अनुत्तरित प्रश्न है।
कुछ आगन्तुकों (मुमुक्षुओं) ने इस बारे में बार-बार आग्रह किया उन्हीं के प्रत्युत्तर में मुझे यह विचार आया कि मूर्तिपूजा कब, कैसे और कहाँ शुरू हुई। अर्थात् अस्तित्व में कैसे आई? उसका प्रारम्भ और उसका ऐतिहासिक प्रमाण क्या है? जिज्ञासुओं के समक्ष इसे शीध्रातिशीध्र प्रस्तुत करना चाहिए।
इसी परिप्रेक्ष्य में परमाराध्य श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के आलोक में 'मूर्तिपूजा का इतिहास' नामक आलेख कल 19 नवंबर को प्रात: 10 बजे आपके सन्मुख प्रेषित किया जाएगा। आशा है आप लाभान्वित होंगे।
तंत्र का सबसे अच्छा उदहारण है जीवन। किसी भी जीव का जीवन एक तंत्र है। तंत्र में जीव आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति लाभ करता है। पुरे जीवन हम जागतिक कर्मा , पुण्य , पाप करते है, और यही फैशला करता है कि हम अगले जा ऍम में कौन सा शरीर धारण करेंगे, आध्यात्मिक उन्नति ही सब फैशला करता है।
तंत्र कर्मा प्रधान, भक्ति प्रधान, पुण्य और पाप प्रधान है।
तंत्र हमारे कर्मा का कर्म फल ही तंत्र है।
यह जीवन मुक्ति और मोक्ष लाभ करने के लिए ही मिला है।
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