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धर्म ही मानवता का देवता है, योग और साधना से मानवता कैसे आगे बढे? | Achieve GOD by Yoga and Tantra

 


योग और साधना से मानवता कैसे आगे बढे?

*(शिवोपदेश)* 


          *जि* न्दगी के ऊँचे-नीचे, उबड़-खाबड़, लम्बे रास्ते सत्पथ के हैं। लक्ष्य की शीघ्रता व कष्ट से बचने के लिए लोग पथ से पद्दलित हो जाते हैं। असत् पथ का अनुगमन कर लेते हैं। लेकिन मुखौटा सत् का ही लगाते हैं वही लोग ऐसा कहते हैं- सीधे रास्ते की ये टेढ़ी ही चाल है ...गोलमाल है ... सब गोलमाल है।        

         गोलमाल इन्होंने समझ रखा है सही मायने में गोलमाल नहीं है। सीधे रास्ते की सीधी ही चाल है। यही बात सदाशिव अपने उपदेश में कह गये हैं :--


*🌹पाप की कुटिल चाल🌹*

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                     ✍🏻श्री श्री आनन्दमूर्ति जी


                सभी जीवों की स्वभाविक गति है-सीधे रास्ते पर चलना। डरपोक मानसिकता, स्वार्थपरता, या अन्य किसी पाप वृत्ति के दबाव में आकर मनुष्य और अन्य जीव वक्र पथ, अर्थात् टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चल पड़ते हैं। यह वक्र पथ केवल जड़ या जागतिक क्षेत्र में ही विद्यमान नहीं रहता, वरन मानसिक क्षेत्र में भी मौजूद रहता है। अर्थात भीरुता, स्वार्थपरता और अन्यान्य प्रकार की पापवृत्ति, चिन्तन के क्षेत्र में भी वक्रता पैदा कर देती है। इसी वक्रता के कारण मनुष्य और मनुष्य के बीच सन्देह का वातावरण निर्मित हो जाता है। यही वक्रता निर्दोष और सीधे सादे मनुष्य को भी गलत ढंग से सोचना सिखला देती है। निर्दोष मनुष्य के प्रति सशंकित होकर, मनुष्य उससे अप्रिय व्यवहार और असद आचरण कर बैठता है। जिसमें थोड़ी बहुत शुभ बुद्धि है, वह अपने संदेहास्पद व्यवहार के बाद जब अनुभव करता है कि उस का संदेह-जनित व्यवहार उचित नहीं था तो वह लज्जित होता है। उसे ग्लानि बोध भी होता है। जिसमें शुभ बुद्धि नहीं है उसे लज्जा और ग्लानि नहीं होती। वरन वह यह सोचता और कहता भी है कि पहले सन्देह करना चाहिये, उसके बाद सन्देह को दूर करना चाहिये। पापयुक्त मानसिकता का यही सब से बड़ा लक्षण है। पाप की भावना से प्रेरित मनुष्य दल या जनगोष्ठी सन्देह से वशीभूत होकर कई प्रकार के पाप कर्म में लिप्त रहती है। उनमें थोड़ा सा भी पाप बोध नहीं रहता। दिखाई भी नहीं देता। जो तत्व और दर्शन मनुष्य को मनुष्य से सन्देह करना सिखाते हैं, मनुष्य को शत्रु समझना सिखाते हैं उन सभी तत्वों और दार्शनिक विचार धाराओं ने अतीत में धरती और धरती के निवासियों को अत्यधिक हानि पहुँचाई है और यदि समय रहते इन्हें नियन्त्रित नहीं किया गया तो भविष्य में भी अत्यधिक हानि पहुँचायेंगी।


                परिस्थिति यहाँ तक पहुँच सकती है कि समाज के हर एक मनुष्य के पीछे गुप्तचर नियुक्त करना पड़ेगा। और गुप्तचर ठीक से काम कर रहा या नहीं यह जानने के लिए उसके पीछे भी गुप्तचर को नियुक्त करने की आवश्यकता महसूस होगी। और गुप्तचर के पीछे गुप्तचर नियुक्त करने की अन्तहीन श्रृंखला से जन्मी गुप्तचरी वृत्ति समाज को अपने चंगुल में ले लेगी और उस के सिर पर सवार हो जायेगी। और उस की खतरनाक परिणति यह होगी कि गुप्तचरी पर आधारित व्यवस्था, समस्त मानवीय सम्पदा को विषाक्त करके उसके अस्तित्व को ही निरर्थक बना देगी। मनुष्य दुरात्माग्रस्त और चिड़चिड़ा हो जायेगा और ऐसे भुतहा समाज के विषैले वातावरण से स्वयं को बचाने के लिए अपने समाज और अपने देश को छोड़ने के लिए बाध्य हो जायेगा।


               बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। जो पापाचार, जो कुटिलता, जो वक्रपथिकता, सम्पूर्ण समाज को विषाक्त बना देती है, वही कुटिलता अपने नियंत्रकों की तरह टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चल कर उन्हीं को ही समाप्त कर देती है। जो पापाचारी और सामर्थ्यवान लोग आज इतिहास के पृष्ठों से दूसरों का नामो निशान मिटा देना चाहते हैं, एक दिन उन्हीं के उत्तराधिकारी, उनके नाम को इतिहास के पन्नों से मिटा देंगे। ये पापाचारी कुटिल पथ पर चल कर विश्व के वातावरण को गंदा कर देते हैं। और अन्ततः उनका पापयुक्त आचरण, कुटिल पथ पर चलते हुए, उन्हीं के सिर पर आकर गिर जाता है और उन्हीं को भस्म कर देता है।


              जो दूसरों को न्याय नहीं दिलाना चाहते, जो दूसरों का गला दबाकर अपनी आवाज को कालजयी बनाने की चेष्टा करते हैं। अन्त में उन्हें भी न्याय नहीं मिल पाता और उनकी आकाश में गूंजने वाली आवाज पाताल में समा जाती है। त्रिकालदर्शी शिव इन कठोर तत्वों को समझते थे। इसलिये वे स्पष्ट भाषा में अपने भक्त तथा धार्मिक मनुष्यों से कह गये हैं -"पापस्य कुटिल: गतिः।"🔹


                  (पटना 13.6.1982)


                   --'नमः शिवाय शान्ताय' से उद्धृत।

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