" यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।"
तक़रीबन साडे 3000 वर्ष पहले श्री कृष्ण का आविर्भाव हुआ था । उनका आविरभाव एक विशेष युग संधि काल में हुआ था । मानवता उस समय एक अत्यंत भेजना दायक परिस्थिति से होकर काल व्यतीत कर रही थी । महाभारत की रचना के माध्यम से उन्होंने उस युग की अर्थ मानवता का परित्रण किया था । उन्होंने समग्र विश्व को आश्वासन देकर कहा था कि जब भी धर्म की रानी दिखाई देगी, अधर्म का अभ्यूथान होगा, उसी समय वह धरा धाम पर अवतरित होकर उनके परित्राण की व्यवस्था करेंगे ।
कृष्ण कि इस तात्पर्य पूर्ण उक्ति को समझने की चेष्टा करो । यह अर्जुन को ' भारत ' कह कर संबोधित किया गया है। इसलिए ' भरत ' माने जो जीव को खाद सामग्री जुटाकर भरण-पोषण करता है । जो मनुष्य की दैहिक और मानसिक प्रगति करा सकते हैं । साधारणता: 39 वर्ष तक मनुष्य का शरीर वृद्धि प्राप्त करता है। उसके बाद इसका छह शुरू होता है ।आध्यात्मिक क्षेत्र में जीवन के अंतिम muhart तक मनुष्य की अध्यात्मिक प्रगति हो सकती है। जिस देश में इस प्रकार की बात होती है उस देश का नाम है ' भारतवर्ष ' । ' वर्ष ' शब्द का अर्थ है इस पृथ्वी का एकांश । साधारणता: ' भारत ' शब्द के साथ देश अर्थ में ' वर्ष ' शब्द की सैयुक्ती होती है ।
भारत में आने के पहले तक आर्यों को भौतिक अस्तित्व की रक्षा के लिए स्थान से स्थानांतर चलना पड़ा था । भारत में पहुंचने पर भौतिक अस्तित्व और मानसिक विकास इन दो समस्याओं का समाधान हो गया। इसलिए उन्होंने इस देश का नाम रखा ' भारतवर्ष ' ।
आलोच्य श्लोक में श्री कृष्ण ने अर्जुन को भारत कहकर संबोधित किया है । वे चाहते थे अर्जुन इस देश के मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति का दायित्व ग्रहण करें । इसलिए उन्होंने अर्जुन को भारत शब्द से संबोधित किया है ।
' ग्लानि ' शब्द का अर्थ क्या है ? किसी वस्तु का जो स्वीकृत मानदंड है उससे नीचे होने से उसे ग्लानि कहेंगे । धर्म का को स्वीकृत मानदंड है, उसकी अपेक्षा नीचे चले जाने से उसे कहेंगे धर्म की ग्लानि । जैसे मानो राजमुकुट धारण का स्वीकृत स्थान है मस्तस्क । यदि कोई सिर पर मुकुट नहीं पहन पाता है पैर में पहनता है तो उसे कहेंगे राजमुकुट की ग्लानि । इसलिए श्री कृष्ण ने हम लोगों को आश्वासन देकर कहा है जब भी धर्म की ग्लानि दिख पड़ेगी , अधर्म का अभ्युदय होगा, जब मनुष्य के सिर का मुकुट मस्तिष्क की शोभा ना बढ़ाकर पांव की शोभा बढ़ाता है, और पांव का जूता सिर की शोभा बढ़ाता है, तभी वेद धर्म को स गौरव स्व स्थान मैं पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए तारक ब्रह्म के रूप में मतर्या भूमि में जन्म लेंगे ।
छोटी छोटी लड़ाई को युद्ध कहते है । बड़े-बड़े युद्ध को महायुद्ध कहते हैं । युद्ध में अनेक समय धर्म की पराजय और धर्म की जय होती है । इस दिशा में साधारण मनुष्य की भूमिका नगण्य हो जाती है । तब परम पुरुष स्वयं तारक ब्रह्म के रूप में मर्त्यलोक में आविर्भूत हो जाते हैं । और तब आकर मानव समाज को धर्म पक्ष और अधर्म पक्ष दो युद्धमान शिविर में प्रस्तुत कर देते हैं और युद्ध के अंत में धर्म की विजय होती है । इसलिए मनुष्य ! भयभीत मत होवो, अंधकार के बाद प्रकाश अवश्य ही आएगा , अवश्य ही आएगा ।
- श्री श्री आनंदमूर्ति जी
इस धरती धराधाम में सबसे पहले आज से 3500 पूर्व भगवन शंकर आये फिर योगेश्वर श्री कृष्णा मानवजाति को सही दिशा दिखने आये। और आज कलयुग में भगवाब श्री श्री अनंदमूर्तिजी अपने भक्तों को और मानवजाति पुरे विश्व को योग और कल्याण के पथ का निदेशन करने आये। उन्होंने योग, तंत्र, साधना, समाज शास्त्र, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक शास्त्र देकर इस समाज को आगे बढ़ने की एक नयी दिशा दिखाई।
इसके अलावा तांत्रिक सशत्र देकर मानव को समझाया कि तंत्र, साधना किसी भी धर्म, जाती, वर्ग से परे है। मानव जाति को मानवता सिखने के लिए साधना आती आवश्यक है और समाज सेवा ।
बाबा आनंदमूर्ति ने समाज और समाज सेवा का महत्व बताया। कि मानव एक साथ आगे बढ़ता है, और मानव समाज एज है अविभाज्य है।
आनंद सूत्रं देकर बाबा ने अध्यात्म के सारे शंका, असमंजस, प्रश्न को दूर कर सिया और एक ऐसे अध्यात्म परिकाष्ठा का निर्माण किया जो मानव मानव के सुलभ है। एक ऐसा साधन को रचा जिसे हर कोई मुक्ति मोक्ष लाभ जार सकता है।
न केवल मानव को, सारे जीव, निर्जीव, धरती पर्यावरण, हर छेत्र में अपना योगदान देकर कर मानवजाति को पृथ्वी को धन्य कर दिया। इसलिए ऐसे भगवन को कोटि कोटि नमन है।
परम पिता बाबा की जय
श्री श्री अनंदमूर्तिजी की जय
अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।"
तक़रीबन साडे 3000 वर्ष पहले श्री कृष्ण का आविर्भाव हुआ था । उनका आविरभाव एक विशेष युग संधि काल में हुआ था । मानवता उस समय एक अत्यंत भेजना दायक परिस्थिति से होकर काल व्यतीत कर रही थी । महाभारत की रचना के माध्यम से उन्होंने उस युग की अर्थ मानवता का परित्रण किया था । उन्होंने समग्र विश्व को आश्वासन देकर कहा था कि जब भी धर्म की रानी दिखाई देगी, अधर्म का अभ्यूथान होगा, उसी समय वह धरा धाम पर अवतरित होकर उनके परित्राण की व्यवस्था करेंगे ।
कृष्ण कि इस तात्पर्य पूर्ण उक्ति को समझने की चेष्टा करो । यह अर्जुन को ' भारत ' कह कर संबोधित किया गया है। इसलिए ' भरत ' माने जो जीव को खाद सामग्री जुटाकर भरण-पोषण करता है । जो मनुष्य की दैहिक और मानसिक प्रगति करा सकते हैं । साधारणता: 39 वर्ष तक मनुष्य का शरीर वृद्धि प्राप्त करता है। उसके बाद इसका छह शुरू होता है ।आध्यात्मिक क्षेत्र में जीवन के अंतिम muhart तक मनुष्य की अध्यात्मिक प्रगति हो सकती है। जिस देश में इस प्रकार की बात होती है उस देश का नाम है ' भारतवर्ष ' । ' वर्ष ' शब्द का अर्थ है इस पृथ्वी का एकांश । साधारणता: ' भारत ' शब्द के साथ देश अर्थ में ' वर्ष ' शब्द की सैयुक्ती होती है ।
भारत में आने के पहले तक आर्यों को भौतिक अस्तित्व की रक्षा के लिए स्थान से स्थानांतर चलना पड़ा था । भारत में पहुंचने पर भौतिक अस्तित्व और मानसिक विकास इन दो समस्याओं का समाधान हो गया। इसलिए उन्होंने इस देश का नाम रखा ' भारतवर्ष ' ।
आलोच्य श्लोक में श्री कृष्ण ने अर्जुन को भारत कहकर संबोधित किया है । वे चाहते थे अर्जुन इस देश के मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति का दायित्व ग्रहण करें । इसलिए उन्होंने अर्जुन को भारत शब्द से संबोधित किया है ।
' ग्लानि ' शब्द का अर्थ क्या है ? किसी वस्तु का जो स्वीकृत मानदंड है उससे नीचे होने से उसे ग्लानि कहेंगे । धर्म का को स्वीकृत मानदंड है, उसकी अपेक्षा नीचे चले जाने से उसे कहेंगे धर्म की ग्लानि । जैसे मानो राजमुकुट धारण का स्वीकृत स्थान है मस्तस्क । यदि कोई सिर पर मुकुट नहीं पहन पाता है पैर में पहनता है तो उसे कहेंगे राजमुकुट की ग्लानि । इसलिए श्री कृष्ण ने हम लोगों को आश्वासन देकर कहा है जब भी धर्म की ग्लानि दिख पड़ेगी , अधर्म का अभ्युदय होगा, जब मनुष्य के सिर का मुकुट मस्तिष्क की शोभा ना बढ़ाकर पांव की शोभा बढ़ाता है, और पांव का जूता सिर की शोभा बढ़ाता है, तभी वेद धर्म को स गौरव स्व स्थान मैं पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए तारक ब्रह्म के रूप में मतर्या भूमि में जन्म लेंगे ।
छोटी छोटी लड़ाई को युद्ध कहते है । बड़े-बड़े युद्ध को महायुद्ध कहते हैं । युद्ध में अनेक समय धर्म की पराजय और धर्म की जय होती है । इस दिशा में साधारण मनुष्य की भूमिका नगण्य हो जाती है । तब परम पुरुष स्वयं तारक ब्रह्म के रूप में मर्त्यलोक में आविर्भूत हो जाते हैं । और तब आकर मानव समाज को धर्म पक्ष और अधर्म पक्ष दो युद्धमान शिविर में प्रस्तुत कर देते हैं और युद्ध के अंत में धर्म की विजय होती है । इसलिए मनुष्य ! भयभीत मत होवो, अंधकार के बाद प्रकाश अवश्य ही आएगा , अवश्य ही आएगा ।
- श्री श्री आनंदमूर्ति जी
परिचय
इस धरती धराधाम में सबसे पहले आज से 3500 पूर्व भगवन शंकर आये फिर योगेश्वर श्री कृष्णा मानवजाति को सही दिशा दिखने आये। और आज कलयुग में भगवाब श्री श्री अनंदमूर्तिजी अपने भक्तों को और मानवजाति पुरे विश्व को योग और कल्याण के पथ का निदेशन करने आये। उन्होंने योग, तंत्र, साधना, समाज शास्त्र, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक शास्त्र देकर इस समाज को आगे बढ़ने की एक नयी दिशा दिखाई।
इसके अलावा तांत्रिक सशत्र देकर मानव को समझाया कि तंत्र, साधना किसी भी धर्म, जाती, वर्ग से परे है। मानव जाति को मानवता सिखने के लिए साधना आती आवश्यक है और समाज सेवा ।
बाबा आनंदमूर्ति ने समाज और समाज सेवा का महत्व बताया। कि मानव एक साथ आगे बढ़ता है, और मानव समाज एज है अविभाज्य है।
आनंद सूत्रं देकर बाबा ने अध्यात्म के सारे शंका, असमंजस, प्रश्न को दूर कर सिया और एक ऐसे अध्यात्म परिकाष्ठा का निर्माण किया जो मानव मानव के सुलभ है। एक ऐसा साधन को रचा जिसे हर कोई मुक्ति मोक्ष लाभ जार सकता है।
न केवल मानव को, सारे जीव, निर्जीव, धरती पर्यावरण, हर छेत्र में अपना योगदान देकर कर मानवजाति को पृथ्वी को धन्य कर दिया। इसलिए ऐसे भगवन को कोटि कोटि नमन है।
परम पिता बाबा की जय
श्री श्री अनंदमूर्तिजी की जय
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Good to go
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