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यम और नियम | A Yogic Mindset

 
योग  और साधना एक दूसरे के पूरक है। योग को अस्टांग  योग कहा जाता है। अस्टांग योग के अंग है   आसान,प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यम , धरना , समाधी,याम, नियम।  याम नियम के बिना साधना नहीं हो सकती।  आत्मा का परमात्मा में मिलान का नाम ही है योग। योग  की उत्पत्ति भारत में हुई है। योग साधना केवल शारीरिक , मानस-शारीरिक,  मानसिक,मनसाध्यात्मिक, और आध्यात्मिक अनुशीलन है।  योग की परिभाषा संस्कृत में है।

                           " संयोगो योगो इत्युक्ति जिवात्मपरमात्मनोः।    "


अर्थात जीवात्मा का परमात्मा के साथ मिलन करने की पद्धति का नाम योग है।
                                                         
परन्तु आज लोग इसके सही अर्थ से भटक गए है।  आज आसान  प्राणायाम ही जनता के बीच लोकप्रिय है। क्यूंकि  वे योग की परिभाषा जानते ही नहीं।  योग और तंत्र को विधिवद्द  आदि कल में आज से 7500 वर्ष पूर्व महासंभूति तारक ब्रम्ह भगवन महादेव शंकर ने किया था।

परन्तु आज नैतिकता के पतन होने के कारन सही योग और साधना दुर्लभ कर दिया गया है।
इसी नैतिकता को हम योग सस्त्र में याम और नियम से जानते है।

याम और नियम योग साधना के अंग है जिसके बिना न योग और तंत्र संभव नहीं है।
याम ५ है और नियम ५  है।

यम -   अहिंसाः, सत्य, अस्तेय , ब्रम्हचर्य, अप्ररिग्रह। यह पांच में  आंतरिक अनुशाशन का पालन करना पड़ता है।



१. अहिंशा -  किसी भी जीव को विचार, वाणी और कर्मा से आहात , चोट नहीं पहुँचाना है।  यदि किसी के बारे में हम विचार कर लेते है की उसका नुकसान करना है वोह हिंसा है।  क्यों की भले ही नुकसान नहीं किया लेकिन मन  ही  मन विचार कर लिया। इसलिए यह हिंसा ही है।



वाणी से भी आज के समय अत्यधिक हिंसा होती है।  लोग गली देते है, अप्सब्द बोलने का नाम ही हिंसा है।
अपने सब्दो को, विचार को नियन्त्रिक करना ही अहिंसा है।

कर्मा से ही सरे हिंसक कर्मा निष्पादित होते है। यह कर्मा ही है जो वाणी , विचार और बुद्धि को नियन्त्रिक करते है।  यदि इसे काबू कर लिया  गया तोह बकी और कुछ नहीं रह जाता करने के लिए।

२. सत्य :-  सत्य मतलब केवल  बोलना नहीं है ,  सत्य को मान कर चलना।  धर्म के के लिए सत्य बोलना पड़े या झूट बोलना पड़े।  सब करना होगा।  झूट , डोग्मा , अंधकार को खत्म करने का नाम है सत्य।

मन लो कोई हत्यारा किसी आदमी के पीछे पड़ा है और वो आपके घर में आश्रय  लेता है।  अब अगर हत्यारा पूछे की वो आदमी कान्हा छुपा है तोह  तुम क्या कहोगे ? हाँ या नहीं ? सत्य बोलने को मान कर चले तोह , वो आदमी मारा जायेगा।  नहीं, उसे बचाना सत्य /धर्म   चलना है।  तुम वंहा झूट बोलोगे और उसे बचाओगे। वही


तुम्हारा धर्म है, सत्य है।


३. अस्तेय  :- अस्तेय का मतलब चोरी  न करना।  अब चोरी ३ प्रकार की होती है। 

१. किसी की  वास्तु बिना पूछे लेना।
२. किसी की  हक़ की वास्तु या अधिकार से वंचित रखना।
३. सरकारी चोरी करना।
४. मानसिक चोरी - अर्थात मन ही मन चोरी  कर लेना।

४. ब्रम्हचर्य :- ब्रम्हचर्य मतलब शादी न करना या वीर्य बचाना नहीं होता बल्कि अपने मन को ब्रम्ह में लगाना है।  मन को विचलित न होने देना और सदा ईश्वर भक्ति में लगाना के नाम है ब्रम्हचर्य।  ब्रम्ह का आचरण और विचरण करने अर्थात ब्रह्मचर्य है।  


अब कुछ  लोग कहते कहते है में ब्रम्हचारी हूँ यानि उसका मन सदा उसके ईस्ट में , ब्रम्हा में मग्न रहता है।
यह लोगो की गलत धरना है की वीर्य  बचाना या सादी न करना ब्रम्हचारी है।  ब्रह्मचारी कोई भी हो सकता है।
स्त्री भी ब्रम्हचारिणी हो सकती है।  होती भी है, साध्वी, ब्रम्हचारिणी ही तोह है।


५. अपरिग्रह :- अब ये नया सब्द है।  इसका सीधा मतलब है , किसी भी व्यक्ति या वास्तु से अति लगाव न रखना , अपरिग्रह है।  किसी वास्तु से आप लगाओ  रखते हो , और यदि कभी उस  छोड़ने  मौका आये तोह , तकलीफ होगा, दर्द होगा।  किसी व्यक्ति से लगाओ हो जाता है, और फिर बाद में छोड़ने में तकलीफ होता है। 

इसी को मास्टर करने का नाम है अपरिग्रह।

अपरिग्रह मतलब जरूरत जितना रखना और बाकि के त्याग करने का नाम है , अपरिग्रह।
योग और साधना में यह बहुत जररोता की चीज़ है।  इसे सीखे के बहुत जरूरत है।



नियम :  ये  भी पांच है।   सोच,संतोष, तपः, स्वाध्याय, इस्वर प्रणिधान। 

इसमें  ईश्वर प्रणिधान मुख्या है। ये बामहमिक कार्य  में आवश्यक है।

१. सोच : सरीर और मन की सफाई को हम सोच  कहते है।  दींन के २४ घंटे में १ बार नहाना अति आवश्यक है।  और उपवास करके हम मन की सफाई करते है।  इस तरह एक योगी का सोच सम्पन्न होता है। 


२. संतोष : मेहनत का कार्य, परिश्रम कर कार्य करके उसके  उचित  फ्ल स्वरुप जो भी मिले उसे ग्रहण करने का नाम संतोष है।  यह एक मनोभौ है , जिसमे हम अपने परिश्रम का फल प्राप्त करके संतुस्ट होते है।  



३. तपः समाज सेवा, ब्रम्ह सेवा, जीव सेवा के लिए जो कास्ट सहकर सेवा करने को तपः कहते है।  तप से सीदा अर्थ है समाज सेवा , ब्रम्ह सेवा।  परन्तु आज के इस दिग्ब्राम्हीक युग में योग और तंत्र जो जनकल्याण  भगवन शंकर ने समाज को दिया वो लुप्त कर दिया गया।  छुपा दिया गया, नास्ता कर दिया।  इसलिए अब इस साइट पर में सदा योग और तंत्र की पूरी व्याख्या लिखूंगा।  


जिस प्रकार भगवन कृष्णा ने साधना करके, उस योग सकती को समाज कल्याण में लगाया।  वो तपः था।  समाज के लिए जो संगर्ष किया वो तप था। समाज और लोक कल्याण के लिए जो संगर्ष किया जाता है , उसे को योग की परिभाषा में तपः।

 ४. स्वाध्याय :- धर्म का ग्रंथ पढ़ कर उसका सही सही अर्थ समझना  , स्वाध्याय कहलाता है। अब अभी यह हो रहा है की ग्रंथ को पढ़ लिया जाता है लेकिन सही अर्थ नहीं समझने  के गन है।  जैसे , ब्रम्हचर्य को समजा जाता है वीर्य सुरक्षित रखना, सादी न करना, जबकि सही अर्थ है, ब्रम्हा का सदैव आरचरन करना। 


इसलिए ग्रंथ पढ़कर सही अर्थ समझना।  स्वाध्याय दिन में दो बार करनी चाहिए।  एक सुबह की पूजा साधना के बाद और साम की साधना पूजा के बाद।

५. इस्वर प्रणिधान :- इसका अर्थ है इस्वर का ,ईस्ट के सदैव नाम लेते रहना।  इस्वर का जपना, ईस्ट  का मंत्र  जपाना  करना , ईश्वर प्रणिधान कहलाता है।   में दो बार बैठ कर करना है।  सुबह और  शाम अनंदा आनंद मार्ग पद्धति में साधना और ईश्वर प्रणिधान सिखना सुलभ है।  इसे आप हमारे मार्ग आचार्य से आसानी  सीख सकते है।  




संपूर्ण योग और साधना  सीखने के लिंक पर क्लिक करे।

 १.  YOGA AND SADHANA
२.  15 POINT PANCHDASHILA
३.   MEDITATION FOR BEGINNER AND THEIR E  ४.   WHAT IS PROUT ?
५.   MICROVITA-5

 


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